
मैं हूँ बेटी मरुस्थल की, मुझे आज भी याद आता है बीकानेर

मुझे आज भी याद आता है बीकानेर,
उसकी काली-पिली आंधियां,
उजले सुनहरे दिन पर पूरी तरह,
पीली गर्द से स्याह होता वो आसमान,
हम घबराकर बंद करते दरवाजे खिड़कियां,
फिर भागा करते आंगन का समेटने सामान,
इतनी दौड़ भाग के बाद भी सामान,
अंधड़ के जाने के बाद फिर होती search,
कहाँ ढूंढें खोया सामान,
कभी माँ की चुन्नी, तो कभी बाबा की धोती,
मिलती पड़ोस के चाचा की छत पर,
कभी कुछ प्यारी चीजें खो जाती हमेशा के लिए,
कुछ सामान तो मिलता सड़क पार की झाडी में,
मुझे आज भी याद आता है बीकानेर,
उसकी काली-पिली आंधियां,
आंधी के साथ आने वाले वो ठंडे झोंके भाते बहुत थे मुझे,
और मैं चुपके से खुली खिड़की छोड़ दिया करती थी,
घंटों आंधी बीत जाने पर भी बैठी मैं रहती,
ऐसा करना अच्छा मुझे बहुत था लगता,
दोस्तों, मैं हूँ बेटी मरुस्थल की,
मुझे आज भी याद आता है बीकानेर,
उसकी काली-पिली आंधियां,
मुझे है आँधियों से प्यार, बेशुमार,
अगली बार भी किसी खुली खिड़की बीकानेर की,
मिलूंगी मैं आपको बैठी उसी आंधी में,
मुझे आज भी याद आता है बीकानेर,
उसकी काली-पिली आंधियां
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